Aur,, Siddharth bairagi ho gaya - 1 in Hindi Moral Stories by Meena Pathak books and stories PDF | और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया - 1

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और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया - 1

और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया

मीना पाठक

(1)

पतीली से गिलास में चाय छान कर सबको थमा आई थी पर मुकेश कहीं नहीं दिख रहा था, वह उसको ढूँढ़ती हुई बाहर कोठरी की ओर चल दी, “बाबू !” आवाज लगाई उसने, कोठरी का किवाड़ उड़का था, धक्का दे कर भीतर आ गई.. अभी तक सो रहे थे बाबू |

“का जी ! आप अभी तक सो रहे हैं..चलिए उठिए..घाम माथे पर चढ़ गया है..|” कुनमुना कर करवट बदल लिया उसने, .|

“बाबू ! देखिये हमको ढेर काम है..ई चाह रखा है आप का, उठ कर पी लीजियेगा नहीं तो जुड़ा जाएगा..फिर धिकाने को मत कहियेगा |” चाय का गिलास रख कर उसे देखने लगी कि उसकी धमकी का कितना असर हुआ, लेकिन मुकेश हिला तक नहीं | अब उसने जोर से हिला दिया उसे |

“सुबह-सुबह बिजली मत गिराया कर भौजी..कितनी बार कहा कि तेरे छूने से करंट लग जाता है |” अंगड़ाई ले कर उठते हुए शरारत से बोला मुकेश |

“ढेर बकलोली मत बतियाया कीजिए..ई लीजिये चाह..आप के दूनो भाई कब का खेत चले गए..और आप की ओंघायी ही नहीं खुल रही |” बड़बड़ाते हुए चाय का गिलास उठा कर उसके हाथ में थमा कर चल दी | मुकेश मुस्कुरा कर उसे जाते हुए देखता रहा |

किसी तरह १२वीं की परीक्षा पास की, उसके बाद पढाई में मन ही नहीं लगा मुकेश का | दोनों बड़े भाई चाहते थे कि पढ़ - लिख कर वो किसी नौकरी में हो जाता पर पढाई में मन लगे तब ना ! थोड़ा बहुत खेती के काम में भाइयों का हाथ बंटा देता था | ना जाने कितने देखनहरू आए पर तैयार नहीं था ब्याह के लिए | माँ बड़बड़ाती पर वो किसी की नहीं सुनता था |

दिन डूब रहा था, दिया-बाती का समय हो रहा था पर आज अभी तक दख्खिन कमरे से नहीं निकली थी वह | बड़ी जनी पूरी आटे की बोरी थीं, एक मन से कम ना होंगीं | मचिया पर बैठीं अपने कमरे की लालटेन का शीशा राख से माज रहीं थीं और आवाज लगा रहीं थीं, “छोटकी दुलहिन..ए दुलहिन ! निकला..ढेर सुतलू आज..गद्बेर भईल |” पर उसने कोई जवाब नहीं दिया ना ही कमरे से निकली | दोगहा का चौखट लांघ कर आंगन में कदम रखते हुए मुकेश ने बड़ी जनी की बात सुन ली |
“का हुआ बड़की भौजी ?”

“ओंघायी नायिखे छोड़त दुलहिन के..कुबेरी के बेर भईल..का जाने रतियाभर का कइली हा |” मुंह बना कर बोलीं बड़ीजनी |

उनकी पूरी बात सुने बिना ही मुकेश दक्खिन कमरे में घुस गया | पलंग पर बेसुध पड़ी थी वह..साड़ी का पल्ला अस्त-व्यस्त..एक पल के लिए ठहर गया मुकेश फिर आगे बढ़ा, “भौजी !” धीरे से पुकारा उसने..नहीं हिली..फिर पुकारा...कोई जवाब नही | पलंग पर बैठ कर उसके गाल पर हाथ रख दिया मुकेश ने, “अरे ! बहुत तेज जर चढ़ा है भौजी को |” जोर से बोला मुकेश ताकि आंगन में बैठी बड़ीजनी सुन लें, उन्होंने सुन भी लिया |

“ल्ला ! भयिल बीपति..के बारी चूल्हा अब!” उससे ज्यादा रात के खाने की चिंता थी उन्हें | बारहो महीने उसी के बनाए खाने से सबके पेट की भूख मिटती थी और वही आज बुखार में तप रही थी, चिंता की तो बात ही थी |

सुन कर मझली जनी के माथे पर भी लकीर खिंच गई, अब एक दो-दिन तो मूड़ फोड़ना ही था चूल्हा-चौका में | दोनों लोग ना चाहते हुए भी रात के खाने की तैयारी में जुट गईं और धड़कते दिल से मुकेश उसका आंचल ठीक कर के बैद्य जी के घर को दौड़ गया | लौटा तो कुछ जड़ीबूटी ले कर | बच्चे दिया जला कर बैठे थे उसके पास | मुकेश पतीली में कुछ जड़ीबूटी पानी में डाल कर छोटी जनी को काढ़ा बनाने के लिए दे कर दक्खिन कमरे की ओर बढ़ गया | माथे पर हाथ रखा तो तप रहा था उसका माथा, जल्दी से एक तसली में पानी ले आया और अंगोछा भीगा कर उसके सिर पर रखने लगा | थोड़ी देर बाद मझलीजनी काढ़ा दे गईं | धीरे-धीरे रात गहरी हो रही थी | सभी खा चुके थे, बुलाने पर भी मुकेश नहीं गया, मझलीजनी उसकी थाली ढक कर वहीँ रख दीं |

“ढेर सेवा जनि करिए..काढ़ा दे कर सुते जाइए अब अपनी कोठरी में |” उसको हिदायत दे कर चली गईं | धीरे-धीरे बच्चे भी सोने चले गए | सिर पर गीले अंगौछे से उसे कुछ राहत मिली थी पर देह में जान नहीं बची थी | सुन सब रही थी, आँखों के कोर से आँसू बह कर अंगौछे में समा रहा था..इस घर में एक मुकेश ही था जो उसका ख्याल रखता था इसी लिए उसकी हर बात को वह सुन लेती थी ऊपर से खिसियाने का दिखावा करती पर दिल से कभी बुरा नहीं माना उसने |

“भौजी !”

“हम्म|”

“उठो..काढ़ा पी लो..सबेरे तक आराम हो जाएगा |” सहारा दे कर उठता हुआ बोला मुकेश | उसके बाहों के सहारे उठ कर काढ़ा पी लिया उसने और फिर से लेट गई |

“बाबू, खाना खा के जाइए अब..बहुत देर हो गया..सुबह आंख नहीं खुलेगी आप की |” कराहती हुई बोली वह |

“नहीं भौजी..मैं यहीं बैठा हूँ |”

“बौरा गए हैं का ! जाइए.. |” वह उसे ढकेलते हुए बोली |

मुकेश ने उसका माथा छूआ..पहले से कुछ ठण्डा था..वह उठा और बेमन से अपनी कोठरी की ओर बढ़ गया | सब सुत्ता पड़ गया था |

वह अपनी कोठरी में आ कर लेटा तो, पर नींद नहीं आई | वह तो बड़की भौजी की बात सुन कर सुबह का बदला लेने गया था छोटकी भौजी से, नींद में उसे जोर से झकझोरने वाला था पर वह तो जर में तप रही थी | उसने आँखें मूँद ली कि शायद नींद आ जाय पर आज नींद आँखों से छू-मन्तर हो गई थी, उसका कहीं कोई अता-पता नहीं था |

उधर वह भी अपने पलंग पर करवट बदल रही थी..पूरी देह टूट रही थी..रात पहाड़ लग रही थी नींद कोसो दूर..पर मुकेश की बलिष्ठ भुजाओं का स्पर्श..उसका स्नेह..अपनापन..उसका यूँ ख्याल रखना..उसके मन में सिहरन पैदा कर रहा था | उसने अपने भीतर जो रति नामक स्थायी भाव वर्षों से पत्थर रख कर दबा रखा था आज वह विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के प्रभाव से पुष्ट हो कर उदीप्त हो रहा था और वह रोक नहीं पा रही थी | मुकेश हमेशा मजाक कर देता था, तब वह उसे डांट दिया करती थी | कई बार जिठानियों ने मुकेश को ले कर उसे ताने भी दे दिए थे इस लिए भी वह उससे सीधेमुंह बात नहीं करती थी | कभी भी मुकेश इतना करीब नहीं आया था उसके जितना आज ! इन्हीं ख्यालों में डूबी थी कि तभी अपने माथे पर किसी के स्पर्श से वह चौंक कर चीखने को हुई कि मुकेश ने अपनी हथेली से उसका मुंह ढँक दिया, “हम हैं..|” धीरे से उसके कान के पास मुंह ले जा कर बोला | उसका दिल जोर से धड़क उठा |

पूरे घर में नींद का साम्राज्य था ऐसे में वो दोनों अकेले रात की गहरी काली चादर में समाये थे ! तभी मुकेश उसके कान में फिर से फुसफुसाया, “तबियत कइसी है अब ?” करेजा कूद के कंठ में अटक गया उसका | मुकेश की गर्म साँसें उसकी कनपटी को छू रहीं थीं | वह उठ कर बैठ गई |
“एह बेरा का करने आये बाबू !..केहू देख लिया कि आप एह समय यहाँ हैं तो ना जाने का होगा..जाइए..भागिए यहाँ से |” उसने भी फुसफुसा कर उसे डाँटते हुए कहा..पर मुकेश ने जैसे कुछ सुना ही नहीं..उसने बाहों में भर लिया उसे ..”अरे ! ई का कर रहे..हटिये..छोड़िये हमें |” मुकेश ऐसा कुछ करेगा उसने सोचा भी नही था..उसके बाँहों के मजबूत घेरे में कसमसाई..पर ना जाने क्यों..जो अभी उसे डांट कर भाग जाने को कह रही थी..चाह कर भी चीख नहीं पाई..ना ही उसका पुरजोर विरोध कर सकी..मुकेश की चौड़ी छाती से लगी उसकी धड़कने गिनती रही..वर्षों से वह इस सुख से अपरिचित थी..तपते रेगिस्तान सा जीवन जिए जा रही थी..जहाँ सिर्फ एक ही मौसम था..बस ताप ही ताप..कहीं कोई कोई वर्षा नही ..कहीं हरियाली नहीं..कहीं नदी ना पोखर..था तो दूर-दूर तक फैला बंजर रेगिस्तान ! आज वहाँ वर्षा हुयी थी..प्रेम की वर्षा और वह उसमे भीग लेना चाहती थी..खूब जी भर के..दोनों की धड़कनों के सिवा कहीं कोई हलचल नहीं थी ..उसकी देह का सारा ताप भाप बन कर उड़ रहा था..तन-मन दोनों पिघल रहा था..अब वह खुद भी उस बंधन से मुक्त नहीं होना चाहती थी..काश ये पल यूँ ही रुक जाता और वह यूँ ही मुकेश की बाहों में समाई रहती..आनन्द के इस सागर में उसका रोम-रोम भीग रहा था तभी अचानक चर्र की आवाज से दोनों चौंके..उत्तर कमरे का दरवाजा खुला था..मुकेश की बाहें उसकी पीठ पर और कस गईं..उसने अपना चेहरा उसकी छाती में छुपा लिया..धडकनों की रफ्त्तार और भी तेज हो गई..कहीं कोई इधर न आ जाय!..मन भय से काँप उठा..पर कुछ देर बाद ही दरवाजा बंद होने की आवाज आई..उसने खुद को मुकेश से अलग किया | तूफ़ान आ कर गुजर गया था |

“जाइए आप |”

“सुन्न.....!” मुकेश की आवाज थरथरा रही थी, आगे कुछ भी बोल ना सका |

“तुरते निकलिए कमरे से |” फुसफुसा कर पर सख्त लहजे में कहा उसने |

“नहीं..ऐसा गजब मत करो..|” सुसफुसाया वह, अपने भीतर के तूफ़ान के आवेग में बहा जा रहा था |

“आप तनिको होश में नहीं..चलिए हटिये यहाँ से..राम जी ने बचा लिया नहीं तो कोई आ जाता तो का होता इस समय |” फुसफुसाते हुए वह उठ कर खड़ी हो गई | मुकेश भी पलंग से उठ कर फिर से बढ़ा उसकी तरफ इस बार उसने दरवाजे की तरफ धक्का दे दिया उसे वह तैयार नहीं था इसके लिए, जोर से लड़खड़ाया पर संभाल लिया खुद को नहीं तो इतनी रात में उसके गिरने से जोर की आवाज हो जाती |

“केहू नहीं आएगा देखने..समझती काहे नाहीं..ऊहो नाहीं..जिसके लिए तू इस घर में बैठी है |” नजदीक आ कर धीरे से बोला वह |

“क्यों छुरा घोंप रहे हमारे करेजे में..जाइए ईहाँ से..इज्जत से जीने दीजिये..हमरे मुंह पर करिखा मत मलिए..|” फिर से सिसक पड़ी वह |

“हमसे वियाह कर ले..फिर तोरी इज्जत पर कालिख नहीं लगेगी और हम भी खुद को दुनिया का बड़का भागमान आदमी समझूँगा..|” इस बार मुकेश की आवाज में गंभीरता थी, भीतर का आवेग पानी के बुलबुले के समान फूट गया था, उसके आँसुओं ने उसे संजीदा कर दिया था |

“जाते हैं आप या हम ही निकल जाएँ कमरे से ?”

मुकेश ने अपने दोनों हाथों में उसका चेहरा भर लिया और उसके जलते माथे पर अपने होठ रख दिए, फिर चुपचाप कमरे से निकल गया |

उसके जाते ही धीरे से कमरे का किवाड़ बंद कर भीतर से सिटकनी चढ़ा दी उसने और अपनी खटिया पर गिर कर सिसक पड़ी, “मुकेश ! ये क्या किया आपने ? हमारे लिए ऐसा सोचना भी पाप है..खुद को संभालना चाहिए था हमें और हमहीं अपनी भावनाओं के आवेग में बह गये..हे भगवान जी ! अपने मन पर काबू क्यों नहीं रख पाये हम..मुकेश छोटा है..पर हम तो बड़े हैं उससे !” उसकी आँखों से आँसू बह कर तकिये में समाने लगे |”

***